Tuesday, March 6, 2012

पन्नों के बीच से...


छायांकन : www.weandwords.com


भगवान हो न तुम ?

सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ?

तो चलो, बना दो मुझे फिर वही

नन्ही सी चंचल गिलहरी

जो फुदक कर मूढ़े पर चढ़ जाती थी

और उछल कर किवाड़ की सांकल खोल

भर लेती थी छोटी सी मुट्ठी में अन्न

एक पुडिया खट्टे-मीठे चूरन की खातिर !


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तुम कहो तो एक खेल खेलते हैं हम दोनों

तुम कर दो मेरे मन की सी,

और बदले में मैं सिखा दूँगी तुम्हे,

आम के पेड़ पर चढ़ना,

खट्टी अमियों पर नमक डाल कर चटखारे लेना.

ट्यूबवेल वाली कोठरी की छत पर चढ़ कर

पपीते तोडना.

बराह का पानी रोकना

और उसमे छ्प-छ्प कर के कूदना.

और फिर किसी के आने की आहट सुनते ही

भाग कर छिप जाना, ईख के खेतों में.

तुम कहो तो खेलें ये खेल ?

3 comments:

  1. वाकई मिट्टी की सोंधी गंध सी ही मन में बस्ती हैं यहाँ की कविताएं...ब्लॉग्गिंग में खुशामदीद.

    उम्मीद है सूखी धरती पर यूँ ही फुहारें पड़ती रहेंगी और मन को बुरा देने वाली ये गंध हर्फ़ हर्फ़ बिखरती रहेगी इस ब्लॉग पर.
    शुभकामनाएं.

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  2. *मन को बौरा देने वाली

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  3. शुक्रिया पूजा जी. अच्छा लगा ये जान कर की मेरे प्रयास लोगों को पसंद आये. बहुत बहुत शुक्रिया!
    :)

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