छायांकन : www.weandwords.com
भगवान हो न तुम ?
भगवान हो न तुम ?
सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ?
तो चलो, बना दो मुझे फिर वही
नन्ही सी चंचल गिलहरी
जो फुदक कर मूढ़े पर चढ़ जाती थी
और उछल कर किवाड़ की सांकल खोल
भर लेती थी छोटी सी मुट्ठी में अन्न
एक पुडिया खट्टे-मीठे चूरन की खातिर !
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तुम कहो तो एक खेल खेलते हैं हम दोनों
तुम कर दो मेरे मन की सी,
और बदले में मैं सिखा दूँगी तुम्हे,
आम के पेड़ पर चढ़ना,
खट्टी अमियों पर नमक डाल कर चटखारे लेना.
ट्यूबवेल वाली कोठरी की छत पर चढ़ कर
पपीते तोडना.
बराह का पानी रोकना
और उसमे छ्प-छ्प कर के कूदना.
और फिर किसी के आने की आहट सुनते ही
भाग कर छिप जाना, ईख के खेतों में.
तुम कहो तो खेलें ये खेल ?
वाकई मिट्टी की सोंधी गंध सी ही मन में बस्ती हैं यहाँ की कविताएं...ब्लॉग्गिंग में खुशामदीद.
ReplyDeleteउम्मीद है सूखी धरती पर यूँ ही फुहारें पड़ती रहेंगी और मन को बुरा देने वाली ये गंध हर्फ़ हर्फ़ बिखरती रहेगी इस ब्लॉग पर.
शुभकामनाएं.
*मन को बौरा देने वाली
ReplyDeleteशुक्रिया पूजा जी. अच्छा लगा ये जान कर की मेरे प्रयास लोगों को पसंद आये. बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDelete:)