Friday, March 30, 2012

जूते बदलते-बदलते



सरसों के पीले खेतों में

बम्बे पर से आती नाली पर

परहोरे डालती नज़रों सी थकान लेकर

जब पहुंचा मैं, अंततः

वटवृक्ष की छाँह में

पनाह लेने को आतुर

एक पृथक की भाँति,

उसके पहलू में,

थके हुए स्वर में उसने

एक कप चाय

की माँग कर डाली.



परहोरे डालना: जब गाँवों में ट्यूबवैल नहीं हुआ करती थी, तब परहोरों (चमड़े की  लम्बी पट्टियाँ) की मदद से खेतों में पानी पहुँचाया जाता था. ये तरीका निहायती थकाऊ हुआ करता था.








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