Sunday, September 8, 2013

गुलाम



भाषा कारागार है

जकड़ती सीमाओं की,

जहाँ

भिंचे घुटने

निरंतर सिकुड़ते व्यास को

ठगने,

उदर की गहराई नापते हैं।



मस्तक-हथौड़ी पर,

लहूलुहान दीवारें

पटकती है गुलाम।



Saturday, March 23, 2013

बेताल की डायरी से


तन्द्रा टूट टूट चुकी है

चारों तरफ नज़र आती है

घुटनों तक लीद में फंसी

लंबी, ऊँची इमारतें ।

रंग-बिरंगी, कंधे उचाकतीं

फडफडातीं, कालर उचकातीं

सफ़ेद कुर्ते रंगातीं

उजली, पाक़ इमारतें ।